वो कितने दूरदर्शी थे ! कितनी सुलझी सोच थी ! वो जानते थे जगत का निर्माण सिर्फ उनके लिए ही नहीं हुआ. इंसान, जानवर, प्रकृति सभी की बराबर हिस्सेदारी है. वो ये भी जानते थे कि एक समय बुद्धिजीवी इंसान संपूर्ण जगत में अपनी हक़ की बात करेगा ! वो, मिल-जुल कर रहने वाले जंगलो और जानवरो के बीच घुस कर अपनी चौखट खडी कर देगा। वो जानते थे इंसान सिर्फ ईश्वर के सामने ही झुक सकता है तो क्यों ना प्रकृति और जानवरो को ईश्वर का अंश बना दिया जाये ताकि इंसानो का प्रकृति, जानवरो के प्रति सम्मान बना रहे । और किया भी !!
हाथी, बाज़, शेर, मयूर से लेकर चूहों तक सभी को ईश्वर का वाहन बनाया। वृक्षो में पीपल, बरगद, चन्दन इत्यादि में ईश्वर का वास बताया। गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को देवियो का रूप बनाया।
एक बच्चे को उसकी माँ ही दूध पिलाती है, और एक परिवार को सुबह-शाम दूध पिलाने वाली गाय को जगत माँ बनाया। तो क्या उन्होंने भूल की ? अरे मानवजाति, भूलो के कर्ता-धर्ता तो सिर्फ हम ही है। हम इंसानो ने सिर्फ एक काम ही किया है "व्यवसाय". जंगलो में नींव डाली, जानवरो के घरो पर अपनी चौखट बना डाली, पेड़ो को काट डाला। गाय जिन्दा तो दूध का व्यवसाय नहीं तो मार कर मांश का.
जगत निर्माण के दो स्तम्भ समाप्ति की ओर है, इंसानी बर्बरता चरम पर है. एक वो कितनी सुलझी सोच थी, और आज कितनी उलझी सोच है की "हम ईश्वर की शक्तियों का नाश कर रहे है और मूर्तियों की पूजा ".
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