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"भ्रस्टाचार- समस्या समाधान पर मेरा एक विचार !"

अगर आपको चाय के साथ अखबार पढने की बुरी आदत है तो इस वर्ष आपकी आँखों  को भी अखबार में घोटालो की पंचलाइन तलाशने की बुरी लत जरुर लगी होगी. एक तरफ गरम चाय आपका मुह जलाती  और दूसरी छोर घोटालो की सुलगती आग आपकी जेब ! कुल मिलाकर उपर, नीचे दोनों तरफ से जली पड़ी है . मै अपने जैसे मक्कार और लच्छमी भोगी देशवासियों को देखकर कह सकता हु की हम देश प्रेम  के लिए विकलांग ही पैदा हुए है . स्कूली शिक्षा के दौरान साल में दो बार "जन गन मन " कर रोगटे खड़े कर लेने से देश-भक्ति नहीं दिखती, हमारे मुह में पड़ा ताला देश को आभूषण नहीं बल्कि भ्रष्टाचार और अत्याचारों की माला पहनाता है . हर साल कई रोग देश के साथ परिणय-सूत्र में बढ़ते  जा  रहे है . वास्तव  में आपकी सहन-शीलता ही, अंग्रेजो का हमारे देश में २०० वर्ष तक राज करने का उत्तर देती है .

                                                              दुर्दशा तो देखिये आजादी के मात्र ६३ वर्ष बाद ही देश को एक और गांधी की जरुरत सी महसूस हो रही है . अरे अंग्रेजो ने  २०० वर्षो में हमें इनता नहीं लूटा जितना  हमारे खुद के नेताओ  ने ! आखिर  नेता बंधुओ  आप सिद्ध क्या करना  चाहते है.. की आप अंग्रेजो से ज्यादा  कुशल  और योग्य लुटेरे है . 
                                                              मै धन्यवाद करता हु श्री अन्ना हजारे और बाबा रामदेव  जैसे समाज सुधारको का, जिन्होंने  हम जैसे विकलांगो  को जगाने और भ्रष्टाचार के भवर  को भागने का बेडा अपने सर  उठाया  . आपने सन 1963 भारत- चीन युद्ध के समय फ़ौज में भर्ती हो देश सेवा की शुरुवात की और आज आप एक देश के प्रभावी समाज  सुधारक  है . आपके महाराष्ट्र आन्दोलन ने उचा सुनने वाली सरकार के उसके ६ मंत्रियो और ४०० अफसरों को चलता कर सरकार के कानो में डंका बजा दिया  . 

                                                              पर जब जब भ्रष्टाचार की गर्मी को लोकपाल की शीतलहर से मिटाने की बात आती है तब तब मायूशी के बादलो की बारिश मेरे और देशवाशियो के उपर होती  है . " सच कहते है इतिहास खुद को दोहराता है, पर अन्ना जी प्रश्न यह है की कितने बार ? क्यों न लोकपाल के इतिहास को ही देखे, सन १९६८ में लोकपाल बिल में पहली बार साँसे भरी, १९६९ में लोकसभा  से पारित हुआ पर राज्यसभा  में ही इसका  गला  घोट दिया गया . तब से लेकर २००८ तक लोकपाल का ९ बार पुनर्जन्म भी हुआ, पर हर बार इतिहास दोहराया  गया , रचा  नहीं ! तो क्या लगता  है अन्ना जी आपकी अगुवाई में १०वे लोकपाल बिल को ये दशाननं सरकार इतिहास रचने देगी. आकडे तो मुह फाड़-फाड़ के असफलता के गीत गा रहे है , पर हमें आशा है आपकी काबिलियत  हमें सफलता  के गीत जरुर सुनाएगी .

                                                              फिर भी लोकपाल बिल की शर्तो को लेकर मेरी आपसे सहमती नहीं बनती . प्रश्न सीधा सा उठता है, की " देश कौन  चलाएगा सरकार या लोकपाल बिल " ? प्रधानमंत्री को इस   बिल के अंदर घसीटने का सीधा सा मतलब है, लोकपाल को सर्वोच्च  पद पर बैठाना . मै मानता हु हम जनता जनादन मूर्ख है , पहले तो एक महगाई  डाईन  सरकार को देश सौप देते है ,फिर डाईन सरकार अपना  एक   दब्बू नेता को राजकुमार बनाकर लगाम अपने हाथो में ले लेती है . मुझे अफ़सोस है की हमारा देश राजकुमार नहीं बल्कि डाईन चला रही है . जब देश ले लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाले  प्रधानमंत्री के उपर ही लोकपाल के डर का काल मढ़राएगा, तो क्या वो सही निर्णय ले सकेगा? . मेरा निवेदन है कि प्रधानमंत्री पद पर होते हुए उस व्यक्ति को इस बिल के अंदर ना  लाये... क्यों कि प्रजा कभी राजा को शूली पर नहीं चढ़ाती.आप उसके मंत्रिमंडल को कतई न बख्शे .  एक तो हम मुट्ठी भर  वोटिंग  कर उसे प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठा कर उसका सम्मान करते है और फिर अगर वही जनता उसे फ़ासी पर लटकाने कि माग करे तो अन्ना जी इसे "लोकतंत्र " नहीं जनता कि "तानाशाही " कहेगे .जनता मुर्ख  है ! अगर इनको अपनी रसोई की जरा भी फिक्र होती तो वोटिंग के दिन घर के बर्तन छोड़ एक सही पार्टी को वोट देने जरुर जाते. 

                                                              बाबा रामदेव आप  मेरे प्रिय है  . सरकार भले ही  अपनी  लुभावनी योजनायो को  गाव - ग़ाव तक नहीं  पंहुचा  पाई हो पर आपने योग को घर घर तक पंहुचा दिया वो भी बिना किसी स्वार्थ-भाव के , आप पूज्यनीय है. मै घर पहुचते ही टी.वी भक्त हो जाता हु भले ही आपके योग प्रसारण को देखते हुए सांस को अंदर बाहर करने में ध्यान न देता हु पर देश की कंजड़ स्तिथि को सुधारने के लिए आपके विचारो को साँसे थाम के सुनता हु . एक पल के लिए तो लगता है क्यों ना देश की कमान आपके हाथ में ही सौप दी जाये. पर टी.वी बंद करते ही आपकी बाते मेरे लिए हांथी दांत हो जाती है .

                                                              आपने पहला मुद्दा देश की शिक्षा प्रणाली पर यह कहते हुए उठाया- " एक अंग्रेज़ अंग्रेजी बोलता है , अंग्रेजी में ही पढता है , और अपनी पूरी शिक्षा अंग्रेजी में ही पूरी करता है , एक चीनी चाइनीज़ बोलता, पढता और पूरी शिक्षा चाइनीज़ में करता है. ठीक इसी प्रकार एक जापानीज़ भी .  लेकिन ! एक भारतीय हिंदी, उर्दू, मराठी, कन्नड़, मलयालम इत्यादि में बोलता है . ९०%  सरकारी स्कुलो में हिंदी में पढाया जाता है, पर जब वो उच्च शिक्षा- इंजीनियरिंग, मेडिकल ,मैनेजमेंट के लिए कदम बढ़ता है तो वो खुद को पिछड़ा, ठगा हुआ महसूस करता है . तो क्यों ना भाषाओ के समुद्र वाले भारत देश में उच्च शिक्षा भी विभिन्न भाषाओ में होनी चाहिए ? "

                                                            इतना सुन मुझे अपनी शिक्षा की उन कठिनाइयों का पता चला जिनके बारे में मुझे भनक तक ना थी. काश ! मैंने भी इंजीनियरिंग अपनी ही भाषा में पूरी की होती - ये कहना अब हास्यास्पद होगा !. बाबा जी आपके समाधान विज्ञान के जैसे है , विज्ञान की इतनी तरक्की के वाबजूद उसकी हर एक सफलता को हम अपने जीवन में नहीं ला सकते क्यों की उसके दूरगामी परिणाम दुस्वप्न और हमें लीलने वाले होते है !. अगर आप उच्च शिक्षा को  भाषा वर्गों के बन्दर- बाँट करने की घोर तपश्या में लीन है तो मै चाहुगा की आपकी तपश्या जरुर भंग हो.

                                                           इंजीनियरिंग, मेडिकल की शिक्षा कोई प्रदेश और राष्ट्र स्तर की शिक्षा नहीं है. ये शिक्षाए भूगोल के हर एक कोने तक फैली हुई है . हर विकसित देश में ये शिक्षा एक ही भाषा में है और होना भी चाहिए, जब देश सारे इंजिनियर और डॉक्टर एक ही भाषा में शिक्षा लेगे तभी देश के हित में एक विस्फोटक योगदान  सकेगे. बाबा की "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता और एक अकेला इंजिनियर चंद्रयान नहीं बना सकता . अगर इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसी  उच्च शिक्षा को हिंदी, इंग्लिश , मलयालम ,कन्नड़, उर्दू, तेलगु इत्यादि भाषाओ में बाँट दिया जायेगा, तो इन भाषाओ से बनने वाले भारतीय इंजिनियर, डॉक्टर कूप- मंडूक बन कर रह जायेगे. आप ही बताइए एक उत्तर भारतीय और एक दखिन भारतीय इंजिनियर मिलकर कैसे काम कर सकेगे . बाबा जी आपका समाधान एक नयी समस्या के जन्म को दर्शाता है . मुझे एक पढ़े-लिखे समाज  में भेद-भाव उत्पन्न हो जाने का डर है . भाषाओ का ज्ञान होना कोई बुरी बात नहीं होती , फिर भले ही वो भाषा अंग्रेजी क्यों न हो ! अंग्रेज बुरे थे, अंग्रेजी नहीं. हर विकसित देश में अंग्रेजी बोली और समझी जाती है . आज का युग कूटनीतिक युग है, अगर हमें विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में हमें आगे बढ़ना है, तो विकसित देशो की सफलता का पाठ का उनकी ही भाषा में ही पढना पढ़ेगा . 
            

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