अंग्रेजो ने कई दशको तक हमारे देश पर राज्य किया , उनका राज्य सूरज की किरणों की तरह था जहा जहा सूरज की किरने तहा तहा वो गोरी चमड़ी । वो हमारे संसाधनों को ऐसे नोच रहे थे जैसे बालो से ज़ू जब कभी इस चुभन से दर्द या लहू बहा तो हमने किसी असहाय कुत्ते की काये काये कर उन्हें डराने की कोशिश की।
जस तस एक अनन्त अवधि गुलामी की चाबुक खाने के बाद कुछ आदर्शवादी नेता और वीर क्रांतिकारियों ने इस देश को एक नया सूरज दिखाया । सौभाग्यवश मै भी इन्ही किरणों में जन्मा तभी माँ कसम किसी गोरी चमड़ी से सामना नहीं हुआ नहीं तो अंग्रेजो को मेरा नाम सुन कर ही इस देश तौबा करनी पड़ती ।
अपने अभी तक के २१ वर्ष के जीवन काल में मुझे महसूस हुआ की वो लुटेरे हमें विकलांग कर खुद पश्चिम में बैठकर पकवान खा रहे है । शुरुवाती १६ वर्ष तो मै अपने बचपन में ही व्यस्त रहा, और देश प्रेम तो सिर्फ बातो तक ही सीमित था , लेकिन पिछले पंचवर्षीय योजना से अब तक मैंने अपने देशवाशियो और यहाँ की संस्कृति में भारी बदलाव महसूस किये !
ऐसा लगता है जैसे गोरी चमड़ी पश्चिम में बैठकर फुक मार रही है और वही पश्चिमी हवा हमारी संस्कृति में ठिठुरन पैदा कर रही हो । मै पाश्चात्य सभ्यता से भयभीत नहीं हु बल्कि उनके अल्लहड़ खुलेपन से हु ।पर एक सच यह भी है की अगर हमें विसकित देशो की श्रेणी में आना है तो इस खुलेपन को किसी न किसी कोने से चखना की पड़ेगा, शायद हमारी सरकारे ये बात भली-भाति जानती है तभी २०२० तक ये स्वर्ण स्वप्न पूरा होने का वादा करती है । हमारे देश का अब तक विकासशील पथ पर रेगने का मुख्य कारण लडकियों और महिलाओ का समय से बधा होना और घर के मुछछड धारी मुखिया की संकुचित सोच है । ये सोच भले ही लडकियों को चक्रव्यूह जैसी सुरक्छा देती हो लेकिन राष्ट्रीय योगदान में उनका हाथ अछूत सा साबित होता है । अगर इसी तरह लडकियों को समय की टुन-टुनाती घंटी से बाधे रखा और उन्हें सिर्फ वंशबढ़ोत्तरी की मशीन समझा तो एक शून्य योगदान देने वाली जनसँख्या विस्फोट हमें खोखला कर देगी ।
तो अब क्या होना चाहिए ? देखिये विदेशी एक आज़ाद पंछी की तरह होते है , पंख आने के बाद वो अपनी जिन्दगी जीने के लिए आजाद होते है उनके निर्णय परिवार और परिवार की भावनाओं से बधे हुए नहीं होते। हमारे पेरेंट्स गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड जैसे शब्दों को स्वीकार नहीं करते और हम आज भी इन्हें लेने में शरमाते है लेकिन इनके होने की प्रबल इच्छा भी रखते यहाँ तक की काफी हद तक लुके-छिपे ढंग से इसे अपना भी चुके है । पश्चमी देशो में ये आम बात है , उनके तो परेंट्स भी इस चलन बे-हिचक अपनाते है , फिर बच्चो के क्या कहने ! उनका इतना खुलापन उन्हें किसी भी माहौल के अनुरूप ढाल देता है ।
पर भारतीय परेंट्स घोर भारतीय संस्कृति की चादर लपेटे हुए इस आधुनिक युग में आ गए है. हमारे निर्णय कुटुंब की सोच पर आधारित होते है और मंजूर वही किया जाता है जिस पर सब एक मत होते है और जिससे समाज में उसका सम्मान बरक़रार रहे . उनके ज़माने में गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड जैसे शब्दों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी और हम तो इसी ज़माने की फसल है भूलवश अगर हम इन रेलेशनशिप में फस भी जाते है तो पडोसी सीधा हमारे परेंट्स की लापरवाही को जिम्मेदार ठहराता है । इस तरह के इल्जामो से बचने के लिए परेंट्स ने लडकियों की लगाम अपने हाथ में ले ली है बस जितनी जरुरत उतनी ढील उनका फंडा है । कुल मिलाकर सोच अब भी वही "लड़की पराया धन होती है" इसिलए उसे बिना दाग लगे पराया करो !
इन दायरों से लडकिया पिछड़ती और समाज से दूर होती जाती है । वो अपरिचित लोगो से साधारण बात करने में भी कतराती है । और घर की चार दीवारे ही उनका सुकून बन जाता है ।
पर आज समय कुछ और है परेंट्स और लडकियों को अपने बीच सामंजस्य बैठना ही पड़ेगा । लडकियों का घर बैठ पकवान सीखने के दिन गए अब ना सिर्फ देहरी के बाहर कदम रखना है बल्कि खुद का लोहा भी मनवाना है , क्यों की सिर्फ लडको के काम करने से हम विकसित नहीं हो पायेगे। तो लडकियों अब एक ऐसा रास्ता आपको ही निकालना जिस में भरपूर आजादी हो और परिवार की साख भी बनी रहे । आपकी आजादी आपका हक़ है क्यों की इंसान आप भी, आज आप चीघ चीघ कर कह सकती है "why should boys have all the fun "। :)
जस तस एक अनन्त अवधि गुलामी की चाबुक खाने के बाद कुछ आदर्शवादी नेता और वीर क्रांतिकारियों ने इस देश को एक नया सूरज दिखाया । सौभाग्यवश मै भी इन्ही किरणों में जन्मा तभी माँ कसम किसी गोरी चमड़ी से सामना नहीं हुआ नहीं तो अंग्रेजो को मेरा नाम सुन कर ही इस देश तौबा करनी पड़ती ।
अपने अभी तक के २१ वर्ष के जीवन काल में मुझे महसूस हुआ की वो लुटेरे हमें विकलांग कर खुद पश्चिम में बैठकर पकवान खा रहे है । शुरुवाती १६ वर्ष तो मै अपने बचपन में ही व्यस्त रहा, और देश प्रेम तो सिर्फ बातो तक ही सीमित था , लेकिन पिछले पंचवर्षीय योजना से अब तक मैंने अपने देशवाशियो और यहाँ की संस्कृति में भारी बदलाव महसूस किये !
ऐसा लगता है जैसे गोरी चमड़ी पश्चिम में बैठकर फुक मार रही है और वही पश्चिमी हवा हमारी संस्कृति में ठिठुरन पैदा कर रही हो । मै पाश्चात्य सभ्यता से भयभीत नहीं हु बल्कि उनके अल्लहड़ खुलेपन से हु ।पर एक सच यह भी है की अगर हमें विसकित देशो की श्रेणी में आना है तो इस खुलेपन को किसी न किसी कोने से चखना की पड़ेगा, शायद हमारी सरकारे ये बात भली-भाति जानती है तभी २०२० तक ये स्वर्ण स्वप्न पूरा होने का वादा करती है । हमारे देश का अब तक विकासशील पथ पर रेगने का मुख्य कारण लडकियों और महिलाओ का समय से बधा होना और घर के मुछछड धारी मुखिया की संकुचित सोच है । ये सोच भले ही लडकियों को चक्रव्यूह जैसी सुरक्छा देती हो लेकिन राष्ट्रीय योगदान में उनका हाथ अछूत सा साबित होता है । अगर इसी तरह लडकियों को समय की टुन-टुनाती घंटी से बाधे रखा और उन्हें सिर्फ वंशबढ़ोत्तरी की मशीन समझा तो एक शून्य योगदान देने वाली जनसँख्या विस्फोट हमें खोखला कर देगी ।
तो अब क्या होना चाहिए ? देखिये विदेशी एक आज़ाद पंछी की तरह होते है , पंख आने के बाद वो अपनी जिन्दगी जीने के लिए आजाद होते है उनके निर्णय परिवार और परिवार की भावनाओं से बधे हुए नहीं होते। हमारे पेरेंट्स गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड जैसे शब्दों को स्वीकार नहीं करते और हम आज भी इन्हें लेने में शरमाते है लेकिन इनके होने की प्रबल इच्छा भी रखते यहाँ तक की काफी हद तक लुके-छिपे ढंग से इसे अपना भी चुके है । पश्चमी देशो में ये आम बात है , उनके तो परेंट्स भी इस चलन बे-हिचक अपनाते है , फिर बच्चो के क्या कहने ! उनका इतना खुलापन उन्हें किसी भी माहौल के अनुरूप ढाल देता है ।
पर भारतीय परेंट्स घोर भारतीय संस्कृति की चादर लपेटे हुए इस आधुनिक युग में आ गए है. हमारे निर्णय कुटुंब की सोच पर आधारित होते है और मंजूर वही किया जाता है जिस पर सब एक मत होते है और जिससे समाज में उसका सम्मान बरक़रार रहे . उनके ज़माने में गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड जैसे शब्दों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी और हम तो इसी ज़माने की फसल है भूलवश अगर हम इन रेलेशनशिप में फस भी जाते है तो पडोसी सीधा हमारे परेंट्स की लापरवाही को जिम्मेदार ठहराता है । इस तरह के इल्जामो से बचने के लिए परेंट्स ने लडकियों की लगाम अपने हाथ में ले ली है बस जितनी जरुरत उतनी ढील उनका फंडा है । कुल मिलाकर सोच अब भी वही "लड़की पराया धन होती है" इसिलए उसे बिना दाग लगे पराया करो !
इन दायरों से लडकिया पिछड़ती और समाज से दूर होती जाती है । वो अपरिचित लोगो से साधारण बात करने में भी कतराती है । और घर की चार दीवारे ही उनका सुकून बन जाता है ।
पर आज समय कुछ और है परेंट्स और लडकियों को अपने बीच सामंजस्य बैठना ही पड़ेगा । लडकियों का घर बैठ पकवान सीखने के दिन गए अब ना सिर्फ देहरी के बाहर कदम रखना है बल्कि खुद का लोहा भी मनवाना है , क्यों की सिर्फ लडको के काम करने से हम विकसित नहीं हो पायेगे। तो लडकियों अब एक ऐसा रास्ता आपको ही निकालना जिस में भरपूर आजादी हो और परिवार की साख भी बनी रहे । आपकी आजादी आपका हक़ है क्यों की इंसान आप भी, आज आप चीघ चीघ कर कह सकती है "why should boys have all the fun "। :)
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